सुनीता... (लघुकथा) "रागिनी!" -"यस सर" "पूनम!" -"सर जी,आज भी नहीं आई है!" "ठीक है चलो...
सुनीता...
(लघुकथा)
(लघुकथा)
"रागिनी!"
-"यस सर"
"पूनम!"
-"सर जी,आज भी नहीं आई है!"
"ठीक है चलो आगे बोलो!"
"बबिता!"
-"यस सर"
"सुनीता!"
-"यस सर"
"सुनीता!!" आश्चर्य भरे भाव से मैने दुहराया।
"यस सर!"
उसने दबे सहमे धीरे से अपनी हाजिरी दुबारा बोली।
"अरे वाह! देखो भाई आज सुनीता भी आईं हैं।"
"वाह!!"
"क्या बात है!"
-"यस सर"
"पूनम!"
-"सर जी,आज भी नहीं आई है!"
"ठीक है चलो आगे बोलो!"
"बबिता!"
-"यस सर"
"सुनीता!"
-"यस सर"
"सुनीता!!" आश्चर्य भरे भाव से मैने दुहराया।
"यस सर!"
उसने दबे सहमे धीरे से अपनी हाजिरी दुबारा बोली।
"अरे वाह! देखो भाई आज सुनीता भी आईं हैं।"
"वाह!!"
"क्या बात है!"
मेरी ओर से एक के बाद एक व्यंग्यवाणों की वर्षा होने लगी। वह चुपचाप सुन रही थी।मौन,निष्प्राण।
"किस क्लास में हो? याद है?"
"अरे हाँ! तुम्हे कैसे याद होगा!" "जबसे नया सत्र शुरू हुआ है तुम तो आज ही दर्शन दे रही हो।पूरे अप्रैल ग़ायब! और अब जब आधार कार्ड जमा करने को कहा गया तो तुरन्त हाजिर! हो न हो कोई सरकारी योजना आई हो और छूट न जाए!!"
"अरे हाँ! तुम्हे कैसे याद होगा!" "जबसे नया सत्र शुरू हुआ है तुम तो आज ही दर्शन दे रही हो।पूरे अप्रैल ग़ायब! और अब जब आधार कार्ड जमा करने को कहा गया तो तुरन्त हाजिर! हो न हो कोई सरकारी योजना आई हो और छूट न जाए!!"
मैं झल्लाहट में एक से एक तीक्ष्ण व्यंग्य कर रहा था। मानो कक्षा के सभी बच्चे उसी के कारण न आ रहे हों।वह अब भी मौन होकर जमीन में आँखें गड़ाये थी।
सुनीता दुबले पतले काया की साँवली सी लड़की ,जो इसी साल चौथी पास करके पांचवी में आई थी। गत वर्ष भी काफी प्रयास के बाद उसकी उपस्थिति सबसे कम रही। कई बार घर जाकर सम्पर्क भी किया।नियमित विद्यालय आने के अनेकों प्रयत्न किये गए। किताबी ज्ञान और नुश्खे लगाये गए,मगर कोई विशेष लाभ न हुआ। उसकी अनुपस्थिति विद्यालय के आंकड़े पर धब्बा और हम शिक्षक द्वय को चुनौती थी।उसको किसी छोटी बात पर प्रोत्साहन के लिए कॉपी,पेन्सिल आदि देकर प्रेरित करने का चिरपरिचित फार्मूला भी फेल था।उसकी गैर हाजिरी की प्रवृत्ति जस की तस। कोई स्थाई न मिलने पर हम लोग भी थक कर उदासीन होने लगे थे।हाँ कभी कभार बदलाव के नाम पर तीन-चार दिन लगातार आने के बाद फिर से ग़ायब हो जाती थी।मास्टरजी परेशान। प्रशिक्षण में प्राप्त सारा उपचारात्मक ज्ञान,उपाय फेल। और ये लड़की विजयी।
"क्या मुसीबत है!"
मैं बड़बड़ाया।
"चलो, हाजिरी पूरी होने पर आफिस में आओ। आज तुम्हारे घर चलना है! तुम्हारे साथ!"
हाजिरी लेकर मैं बच्चों को भिन्न के जोड़ वाले दो तीन सवाल देकर आफिस में चला गया।अब उस नन्ही अपराधिनी का इंतज़ार था। मैंने दबाव बनाने के लिए एक और अध्यापक महोदय को भी बुलवा लिया। थोड़ी देर बाद भी जब वह न आई तो एक बच्चे को भेजकर फिर से बुलवाया।सकुचाते हुए,डरी सहमी,पसीने से तर ब तर आफिस के दरवाजे के पास आकर वह खड़ी हो गयी। ड्रेस भी नहीं पहना था।कपड़े के नाम पर चीथड़े थे। और पैरों में बेवाइयां। चप्पल भी नहीं। उसकी दशा देखकर मन पसीज रहा था। एक बार मन किया कि पुचकार कर उसे पास बुला लूँ। और कह दूँ कि बिटिया कोई बात नहीं!तेरे सारे अपराध माफ़। अब कल से रोज आना! मगर उपचारात्मक शिक्षण के कीड़े ने इस अनौपचारिक कार्य से रोक लिया।
मैंने कड़ककर बुलाया-
"दिमाग खराब है!फिर इतने दिन गायब?"
"क्यों स्कूल नहीं आती?"
सन्नाटा!
वह मुझसे नज़र नहीं मिला पा रही थी।नज़रें अब भी जमीन पर| हालाँकि मेरी भी दशा यही थी। केवल कर्तव्यपथ पर था।उसकी झाँई पड़ी नन्ही गोल आँखें भले ही निशब्द थीं मगर सब कुछ कह रहीं थी।
वह कुछ देर चुप रही। फिर अपने दोनों नन्हे हांथो से चेहरा ढक कर फफक पड़ी। बेजुबान अपराधी बनी आँखों से अश्रुधार बह निकली।दर्द ने निकलने का रास्ता ढूँढ़ लिया। उसकी इस दशा,इस व्यथा पर, मैं पसीज उठा।अंतर्मन में छिपे वात्सल्य ने व्यवसायवादिता पर विजय पा ली थी।हृदय ने उस निरीह की तुलना अपने बच्चे से की।
"भाड़ में जाए उपचारात्मक शिक्षण!"
मैंने मन ही मन कहा ।और उसे चुप कराने का प्रयास करने लगा।उसे जैसे ही पास बुलाया,वह मुझसे लिपट कर रोने लगी।मैं भावनाओं के ऊफान में जाने लगा।न जाने व्यक्तिगत जीवन के,मेरे अपने बचपन के कितने तार छू उठे।मैं उसके गन्दे कपड़े और मैले कुचैले स्वरूप् को भूल,धूल धूसरित बालों को सहला रहा था। स्वयम् पर आश्चर्य भी हो रहा था! मेरे भीतर इतना वात्सल्य! वाह मैं!
मेरे हौसले का बांध दबाव में था। मगर अध्यापक को भावनाओं को काबू में रखना चाहिए,इसका ख्याल भी था।
"ना बिटिया"
"ना!"
"अब बस भी कर!"
"तू तो मेरी रानी बिटिया है!"
"बहादुर भी है!"
"ऐं! अब तो पांच में चली गयी! "बड़ी हो रही है!, रोते नहीं"
धीरे धीरे वह सामान्य होने लगी। सुबकते हुए उसने बताया कि उसके पिता जंगल से लकड़ी काटने का काम करते है। रोज शाम को लकड़ी बेचकर घर का राशन और अपने लिए शराब लेकर आते है। शराब पीकर माँ को खूब मारते हैं। झगड़ा करते हैं। गालियां देते हैं। एक दिन रात को नशे में माँ को खूब पीटा और उसका बस्ता जिसमे सारी किताब- कॉपी थी,माँ के सारे कपड़े,उसका ड्रेस आदि सब को जला डाला। यह सिलसिला और माहौल उसकी चेतना के आरम्भ से है। घर में दो-दो,तीन- तीन दिन तक चूल्हा नहीं जलता।बस माँ जलती है,उसका तन और मन जलता है।और इस तपन में वो झुलसती है, बचपन जलता है।
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सुनीता दुबले पतले काया की साँवली सी लड़की ,जो इसी साल चौथी पास करके पांचवी में आई थी। गत वर्ष भी काफी प्रयास के बाद उसकी उपस्थिति सबसे कम रही। कई बार घर जाकर सम्पर्क भी किया।नियमित विद्यालय आने के अनेकों प्रयत्न किये गए। किताबी ज्ञान और नुश्खे लगाये गए,मगर कोई विशेष लाभ न हुआ। उसकी अनुपस्थिति विद्यालय के आंकड़े पर धब्बा और हम शिक्षक द्वय को चुनौती थी।उसको किसी छोटी बात पर प्रोत्साहन के लिए कॉपी,पेन्सिल आदि देकर प्रेरित करने का चिरपरिचित फार्मूला भी फेल था।उसकी गैर हाजिरी की प्रवृत्ति जस की तस। कोई स्थाई न मिलने पर हम लोग भी थक कर उदासीन होने लगे थे।हाँ कभी कभार बदलाव के नाम पर तीन-चार दिन लगातार आने के बाद फिर से ग़ायब हो जाती थी।मास्टरजी परेशान। प्रशिक्षण में प्राप्त सारा उपचारात्मक ज्ञान,उपाय फेल। और ये लड़की विजयी।
"क्या मुसीबत है!"
मैं बड़बड़ाया।
"चलो, हाजिरी पूरी होने पर आफिस में आओ। आज तुम्हारे घर चलना है! तुम्हारे साथ!"
हाजिरी लेकर मैं बच्चों को भिन्न के जोड़ वाले दो तीन सवाल देकर आफिस में चला गया।अब उस नन्ही अपराधिनी का इंतज़ार था। मैंने दबाव बनाने के लिए एक और अध्यापक महोदय को भी बुलवा लिया। थोड़ी देर बाद भी जब वह न आई तो एक बच्चे को भेजकर फिर से बुलवाया।सकुचाते हुए,डरी सहमी,पसीने से तर ब तर आफिस के दरवाजे के पास आकर वह खड़ी हो गयी। ड्रेस भी नहीं पहना था।कपड़े के नाम पर चीथड़े थे। और पैरों में बेवाइयां। चप्पल भी नहीं। उसकी दशा देखकर मन पसीज रहा था। एक बार मन किया कि पुचकार कर उसे पास बुला लूँ। और कह दूँ कि बिटिया कोई बात नहीं!तेरे सारे अपराध माफ़। अब कल से रोज आना! मगर उपचारात्मक शिक्षण के कीड़े ने इस अनौपचारिक कार्य से रोक लिया।
मैंने कड़ककर बुलाया-
"दिमाग खराब है!फिर इतने दिन गायब?"
"क्यों स्कूल नहीं आती?"
सन्नाटा!
वह मुझसे नज़र नहीं मिला पा रही थी।नज़रें अब भी जमीन पर| हालाँकि मेरी भी दशा यही थी। केवल कर्तव्यपथ पर था।उसकी झाँई पड़ी नन्ही गोल आँखें भले ही निशब्द थीं मगर सब कुछ कह रहीं थी।
वह कुछ देर चुप रही। फिर अपने दोनों नन्हे हांथो से चेहरा ढक कर फफक पड़ी। बेजुबान अपराधी बनी आँखों से अश्रुधार बह निकली।दर्द ने निकलने का रास्ता ढूँढ़ लिया। उसकी इस दशा,इस व्यथा पर, मैं पसीज उठा।अंतर्मन में छिपे वात्सल्य ने व्यवसायवादिता पर विजय पा ली थी।हृदय ने उस निरीह की तुलना अपने बच्चे से की।
"भाड़ में जाए उपचारात्मक शिक्षण!"
मैंने मन ही मन कहा ।और उसे चुप कराने का प्रयास करने लगा।उसे जैसे ही पास बुलाया,वह मुझसे लिपट कर रोने लगी।मैं भावनाओं के ऊफान में जाने लगा।न जाने व्यक्तिगत जीवन के,मेरे अपने बचपन के कितने तार छू उठे।मैं उसके गन्दे कपड़े और मैले कुचैले स्वरूप् को भूल,धूल धूसरित बालों को सहला रहा था। स्वयम् पर आश्चर्य भी हो रहा था! मेरे भीतर इतना वात्सल्य! वाह मैं!
मेरे हौसले का बांध दबाव में था। मगर अध्यापक को भावनाओं को काबू में रखना चाहिए,इसका ख्याल भी था।
"ना बिटिया"
"ना!"
"अब बस भी कर!"
"तू तो मेरी रानी बिटिया है!"
"बहादुर भी है!"
"ऐं! अब तो पांच में चली गयी! "बड़ी हो रही है!, रोते नहीं"
धीरे धीरे वह सामान्य होने लगी। सुबकते हुए उसने बताया कि उसके पिता जंगल से लकड़ी काटने का काम करते है। रोज शाम को लकड़ी बेचकर घर का राशन और अपने लिए शराब लेकर आते है। शराब पीकर माँ को खूब मारते हैं। झगड़ा करते हैं। गालियां देते हैं। एक दिन रात को नशे में माँ को खूब पीटा और उसका बस्ता जिसमे सारी किताब- कॉपी थी,माँ के सारे कपड़े,उसका ड्रेस आदि सब को जला डाला। यह सिलसिला और माहौल उसकी चेतना के आरम्भ से है। घर में दो-दो,तीन- तीन दिन तक चूल्हा नहीं जलता।बस माँ जलती है,उसका तन और मन जलता है।और इस तपन में वो झुलसती है, बचपन जलता है।
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वह चुप थी। मैं भी। लाख,पढ़े लिखे शिक्षा शास्त्री और समाज विज्ञानी ,मद्यपान जैसी सामाजिक बुराई और इसके प्राथमिक शिक्षा पर पड़ने वाले दुष्पर्भावों की व्याख्या करें,आंकड़े जुटाएँ,शोध करें, हल निकालें, कागज़ रंगीन बनाएं।दफ्तरों की शोभा बढ़ाएं।वे शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के नए रास्ते तलाशें,मगर सुनीता का बचपन जल रहा है। और इस आग में एक निरीह अध्यापक भी।
-'अरुण'
