जून की तेज धूप है, ऊंची इमारत पर एक चिड़िया बैठी हुयी है, सामने फैले रेगिस्तान में लग्जरी गाड़ियों का एक लम्बा काफिला आकर रुकता है, गाड...
जून की तेज धूप है,
ऊंची इमारत पर एक चिड़िया बैठी हुयी है,
सामने फैले रेगिस्तान में लग्जरी गाड़ियों का एक लम्बा काफिला आकर रुकता है,
गाड़ियों से सफेदपोशों का एक हुजूम उतरता है,
चिड़िया भय से कांप उठी कि अब यहां भी कोई इमारत खड़ी हो जाएगी,

मगर यह क्या कि अगले पल ही चिड़िया का भय आत्मग्लानि में बदल जाता है,
क्योंकि यह लोग इमारत बनाने के बजाय पौधा रोपने आए हैं ।
.
आदमी के चेहरे और चरित्र से बड़े कैमरों को पकड़े आदमी सफेदपोशों को कुछ सुझाव दे रहे हैं ,
जमीन पर रखते वक्त उन अट्ठारहों सफेदपोशों ने पौधे में एक साथ यूं हाथ लगा रक्खा है जैसे कि वे पौधे को रोपने के बजाय दफनाने आए हैं,
सबकी नजरें कैमरे की ओर हैं ।
इतनी ही देर में चिड़िया ने सपनों की एक पूरी जिन्दगी जी डाली,
एक बड़ा सा वृक्ष, बहुत सारी शाखाएं, मुस्कुराती कोपलें, गुनगुनाते फूल, मेरा सुरक्षित घोंसला, आसमान को छूने के लिए तैयार होते मेरे बच्चे आदि आदि ।
गाड़ियों के जाने के साथ ही चिड़िया की तन्द्रा टूटी,
धुएं का गुबार आसमान की ओर और धूल का गुबार जमीन की ओर जाकर शान्त हो चुके ।
.
शाम के वक्त चिड़िया ने देखा कि पौधा मुरझा रहा है,
वह उदास होकर इमारत से उतर के पौधे के पास पहुंची और उस पर अपने नन्हें परों की अधूरी छांव करते हुए बोली कि मैं समझ सकती हूं कि धूप और प्यास के कारण तुम्हारा कोमल शरीर मुरझा रहा है,
थोड़ा सब्र करो मैं अपनी चोंच में तुम्हारे लिए पानी लेकर आती हूं ।
पौधा ठहाका लगाकर जोर से हंसा और बोला - प्यारी नादान चिड़िया । मैं पौधा नहीं, सिर्फ एक टहनी हूं, जिसे सफेद पोशाक पर लगे धब्बों को मिटाने के लिए पौधा बताकर रोप दिया गया है ।
जिस तरह मेरे पास जड़ नहीं है, ठीक उसी तरह विकास की इस ऊंची इमारत के पास बुनियाद भी नहीं ।
यह जो आदमी है न, बहुत ही विचित्र प्राणी है, ईश्वर बनने की फिराक में ईश्वर को ही बेच देता है ।
जमीन पर टहनी रोपता है, कागजों में पौधा रोपता है और समाज में कुर्सी रोपता है ।
और यदि कभी पौधा रोप भी देता है, तो उसे जमीन की नहीं व्यवस्था की दीमक खा जाती है,
पौधे को कागजों में खाद अर्पित कर दी जाती है,
जबकि हकीकत में वह खाद गलगोटिया साहब के पिज्जे के रुप में परिवर्तित होती है,
यह एक ऐसी व्यवस्था है जहां पौधों को फाइलों में पानी पिला दिया जाता है, जबकि हकीकत में वही पानी सिंघानिया साहब की बिसलरी की बोतल में प्रकट होता है ।
अर्थात् जिसे देखभाल बोला जाता है, वह व्यवस्था की चाहत नहीं बल्कि उस पौधे की जीवटता ही होती है कि वह जीवन के लिए संघर्ष करता है,
तेज दौड़ रही भ्रष्ट व्यवस्था उसके तने को पोलियो का सा मरीज बना देती है ।
.
.
.
काश हम भी वोटर होते ।
बेहद दर्द के आंसुओं को गिराते हुए इतना बोलकर वह टहनी चिड़िया के परों की छांव में "दुबारा" मर गयी ।
ऊंची इमारत पर एक चिड़िया बैठी हुयी है,
सामने फैले रेगिस्तान में लग्जरी गाड़ियों का एक लम्बा काफिला आकर रुकता है,
गाड़ियों से सफेदपोशों का एक हुजूम उतरता है,
चिड़िया भय से कांप उठी कि अब यहां भी कोई इमारत खड़ी हो जाएगी,

मगर यह क्या कि अगले पल ही चिड़िया का भय आत्मग्लानि में बदल जाता है,
क्योंकि यह लोग इमारत बनाने के बजाय पौधा रोपने आए हैं ।
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आदमी के चेहरे और चरित्र से बड़े कैमरों को पकड़े आदमी सफेदपोशों को कुछ सुझाव दे रहे हैं ,
जमीन पर रखते वक्त उन अट्ठारहों सफेदपोशों ने पौधे में एक साथ यूं हाथ लगा रक्खा है जैसे कि वे पौधे को रोपने के बजाय दफनाने आए हैं,
सबकी नजरें कैमरे की ओर हैं ।
इतनी ही देर में चिड़िया ने सपनों की एक पूरी जिन्दगी जी डाली,
एक बड़ा सा वृक्ष, बहुत सारी शाखाएं, मुस्कुराती कोपलें, गुनगुनाते फूल, मेरा सुरक्षित घोंसला, आसमान को छूने के लिए तैयार होते मेरे बच्चे आदि आदि ।
गाड़ियों के जाने के साथ ही चिड़िया की तन्द्रा टूटी,
धुएं का गुबार आसमान की ओर और धूल का गुबार जमीन की ओर जाकर शान्त हो चुके ।
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शाम के वक्त चिड़िया ने देखा कि पौधा मुरझा रहा है,
वह उदास होकर इमारत से उतर के पौधे के पास पहुंची और उस पर अपने नन्हें परों की अधूरी छांव करते हुए बोली कि मैं समझ सकती हूं कि धूप और प्यास के कारण तुम्हारा कोमल शरीर मुरझा रहा है,
थोड़ा सब्र करो मैं अपनी चोंच में तुम्हारे लिए पानी लेकर आती हूं ।
पौधा ठहाका लगाकर जोर से हंसा और बोला - प्यारी नादान चिड़िया । मैं पौधा नहीं, सिर्फ एक टहनी हूं, जिसे सफेद पोशाक पर लगे धब्बों को मिटाने के लिए पौधा बताकर रोप दिया गया है ।
जिस तरह मेरे पास जड़ नहीं है, ठीक उसी तरह विकास की इस ऊंची इमारत के पास बुनियाद भी नहीं ।
यह जो आदमी है न, बहुत ही विचित्र प्राणी है, ईश्वर बनने की फिराक में ईश्वर को ही बेच देता है ।
जमीन पर टहनी रोपता है, कागजों में पौधा रोपता है और समाज में कुर्सी रोपता है ।
और यदि कभी पौधा रोप भी देता है, तो उसे जमीन की नहीं व्यवस्था की दीमक खा जाती है,
पौधे को कागजों में खाद अर्पित कर दी जाती है,
जबकि हकीकत में वह खाद गलगोटिया साहब के पिज्जे के रुप में परिवर्तित होती है,
यह एक ऐसी व्यवस्था है जहां पौधों को फाइलों में पानी पिला दिया जाता है, जबकि हकीकत में वही पानी सिंघानिया साहब की बिसलरी की बोतल में प्रकट होता है ।
अर्थात् जिसे देखभाल बोला जाता है, वह व्यवस्था की चाहत नहीं बल्कि उस पौधे की जीवटता ही होती है कि वह जीवन के लिए संघर्ष करता है,
तेज दौड़ रही भ्रष्ट व्यवस्था उसके तने को पोलियो का सा मरीज बना देती है ।
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काश हम भी वोटर होते ।
बेहद दर्द के आंसुओं को गिराते हुए इतना बोलकर वह टहनी चिड़िया के परों की छांव में "दुबारा" मर गयी ।
स्रोत : सोशल मीडिया में वायरल कांटेंट